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सहारा की धूल से क्यों सराबोर हुआ यूरोप?…

सहारा की धूल से क्यों सराबोर हुआ यूरोप?… –

इस हफ्ते सहारा की धूल ने हजारों मील का सफर तय करके एथेंस को लाल-नारंगी ओढ़नी से ढंक दिया।ऐसा लगा, जैसे धरती पर मंगर ग्रह उतर आया हो,लेकिन ऐसा हुआ क्यों?सहारा से उठे तूफान डस्ट यानी धूल लेकर
यूरोपीय देशों की राजधानी पहुंचते रहते हैं।
यह पिछले कई सालों से देखने में आ रहाहै। इस धूल भरे तूफान की वजह और इससे जुड़े जोखिम जानना दिलचस्प है।सहारा से तूफान क्यों उठा इस तरह धूलउड़कर दूर तक जाने का सिलसिला बनता है, जब सहारा मरुस्थल के शुष्क तापमान में तेज हवाएं चलती है।बार्सिलोना सुपरकंप्यूटिंग सेंटर में रेत और धूल विशेषज्ञ कारलोस पेरेज गारसिया-पांडो बताते हैं कि मरुस्थल की रेत अलग-अलग किस्म के कणों से मिलकर बनती
है।
कुछ काफी बड़े और भारी होते हैं। जब तेज हवा बहती हैं, तो पहले ये उड़ते हैं, लेकिन भूमध्यसागर पार करके यूरोप की लंबी यात्रा करने वाले कणों में ये नहीं हैं।जब ये बड़े कण जमीन पर गिरते हैं,तो उनकी वजह से रेत के दूसरे कणों के समूह टूटकर बहुत छोटे कणों के रूप में फैल जाते हैं।यही वे यात्री कण हैं, जो लंबी दूरी तक चले जाते हैं क्योंकि ये बेहद छोटे और हल्के होते हैं। ऐसे तूफान तभी आते हैं, जब मौसम बेहद शुष्क हो, वरना कण आपस में जुड़ जाते हैं और भारी होकर लंबी दूरी तक नहीं जा पाते।धूल भरे तूफान ज्यादातर उन्हीं इलाकों में आते हैं, जहां पेड़-पौधे कम होते हैं, जो हवा के रास्ते में
बाधा पैदा करके उनकी गति धीमी कर सकते हैं।
यूरोप तक क्यों पहुंच रही है धूल सहारा मरुस्थल में तूफान आम बात है, लेकिन उत्तर की तरफ हजारों मील तक चलते जाने के लिए इन तूफानों को मुनासिब मौसमी स्थितियां मिलनी चाहिए, जो तेज हवाओं के लिए लंबी दूरी तक आगे बढ़ते रहने में मददगार हों।ज्यादातर मामलों में कम दबाव वाली मौसमी परिस्थितियां इसका कारण बनती हैं, जिसकी वजह से हवाएं यूरोप तक पहुंच पाती हैं। कम दबाव वाले हालात वसंत ऋतु में ज्यादा बनते हैं।न्यू यॉर्क की यूनिवर्सिटी ऑफ बफलो में डस्ट एक्सपर्ट स्टुअर्ट एवंस बताते हैं कि धूल के जो कण यूरोप पहुंचते हैं,
वे हवा में बहुत देर तक इसीलिए तैरते रह पाते हैं, क्योंकि वे छोटे होते हैं और गिरते नहीं हैं।तो जो तूफान यूरोप पहुंचता है, वह दरअसल रेतीला तूफान नहीं, धूल भरा तूफान होता है। क्या समस्या हैं
धूल भरे तूफान गारसिया-पांडो कहते हैं
, “यह ऐतिहासिक तौर पर होता आया है।धूल लगभग उतनी ही पुरानी है, जितनी कि धरती। इसमें कुछ नया नहीं है” वह कहते हैं कि इन धूल भरे तूफानों की स्टडी करने का मतलब डर को बढ़ाना नहीं है, बल्कि इन्हें समझना और यह जानना है कि पर्यावरण और समाज के लिए इनका क्या अर्थ है।गारसिया-पांडो का मानना है कि धूल हमेशा बुरी चीज नहीं होती। उदाहरण के लिए यह जंगलों और समुद्रों को पोषित करती है। उन तक लौहतत्व और फॉस्फोरस पहुंचाती है।औद्योगिक काल शुरू होने के पहले से ही धरती पर धूल की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इसकी वजह खेती जैसी इंसानी गतिविधियां तो हैं ही, लेकिन बदलता मौसम भी इसके लिए जिम्मेदार है।गारसिया कहते हैं कि मान लीजिए कि धूल का एक ठोस टुकड़ा सा है। अगर आपका पैर उस पर पड़ जाए या उस पर से कार गुजर जाए, तो वह टूटकर टनों छोटे कणों में बिखर जाएगा और “वे सारे कण हवा से बहुत ज्यादा प्रभावित होंगे” इसे जलवायु परिवर्तन से जोड़ते हुए वह आगे कहते हैं कि अगर एक झील सूख जाती है, तो पीछे रह गई तलछट में कटाव बहुत आसानी से होता है और यह आसानी से हवा में जा सकती है” लेकिन फिलहाल वैज्ञानिक इस बात को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि जलवायु परिवर्तन से धरती पर हवा ज्यादा
होगी या कम।
इसी कारण धूल भरे तूफानों का भविष्य आंकना भी मुश्किल है। अपना ख्याल रखें अगर आप यूरोप में हैं और तूफान का सामना करना पड़े, तो आपको विशेषज्ञों की वही सलाह माननी चाहिए, जो हवा की गुणवत्ता खराब होने पर दी जाती है।धूल सांस की दिक्कतें पैदा कर सकती है, इसलिए बाहर निकलते वक्त नाक ढंककर निकलें, बाहर खेल-कूद या कसरत करने से बचें।यह खासकर उन लोगों के लिए है, जिन्हें सांस संबंधी बीमारियां हैं।

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